मंगलवार, 22 सितंबर 2009

dastan

सदियों पीछे अपना जहाँ छोड़ आये हम !
दूर गाँव में अपना मकाँ छोड़ आये हम !
चाँद को तो छू लिया दौड़ कर लेकिन 
आदमी को जाने कहाँ छोड़ आये हम !
जब भी किताबे जिन्दगी देखेगा वो अपनी 
रो पड़ेगा ऐसे निशाँ छोड़ आये हम !
खुद को बना लिया है तेरी बज्म के काबिल 
बोलती थी सच वो ज़ुबां छोड़ आये हम !
तेरी गली के पत्थरों को चुनने के वास्ते 
तारों से भरा आस्मां छोड़ आये हम !
कहने को जब रहा नहीं कुछ भी ऐ अख्तर 
यूँ ही ज़रा सी दासतां छोड़ आये हम !

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