सदियों पीछे अपना जहाँ छोड़ आये हम !
दूर गाँव में अपना मकाँ छोड़ आये हम !
चाँद को तो छू लिया दौड़ कर लेकिन
आदमी को जाने कहाँ छोड़ आये हम !
जब भी किताबे जिन्दगी देखेगा वो अपनी
रो पड़ेगा ऐसे निशाँ छोड़ आये हम !
खुद को बना लिया है तेरी बज्म के काबिल
बोलती थी सच वो ज़ुबां छोड़ आये हम !
तेरी गली के पत्थरों को चुनने के वास्ते
तारों से भरा आस्मां छोड़ आये हम !
कहने को जब रहा नहीं कुछ भी ऐ अख्तर
यूँ ही ज़रा सी दासतां छोड़ आये हम !
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